आचार्य विरजानंद देवकरणी का जन्म 2 दिसंबर 1945 को हरियाणा के महेन्द्रगढ़ ज़िले के भगाद्याना गाँव में श्रीमती सरियांदेवी एवं श्री देवकरण यादव के घर हुआ। प्रारंभिक शिक्षा यादवेंद्र हाई स्कूल, महेन्द्रगढ़ से आठवीं कक्षा तक पूरी करने के उपरांत उन्होंने 1951 में गुरुकुल झज्जर में प्रवेश लिया। वहीं से उन्हें क्रमशः सिद्धांतवाचस्पति, व्याकरणाचार्य, दर्शनाचार्य और इतिहासाचार्य की उपाधियाँ प्रदान की गईं। गुरुकुल झज्जर के हरियाणा साहित्य संस्थान के माध्यम से उन्होंने वेद, दर्शन और उपनिषद आदि विषयों पर अनेक ग्रंथों का संपादन किया। स्वामी ओमानंद सरस्वती के सान्निध्य में रहकर उन्होंने प्राचीन भारत से संबंधित अनेक दुर्लभ अवशेष एकत्र कर हरियाणा राज्य पुरातत्व संग्रहालय (गुरुकुल झज्जर) को समर्पित किए तथा उनके प्रचार-प्रसार में सराहनीय योगदान दिया। आर्य समाज जगत में ब्राह्मी, खरोष्ठी और यवनानी जैसी प्राचीन लिपियों को पढ़ने और उनके विश्लेषण में उनकी विशेषज्ञता अनुपम मानी जाती है। भारत सरकार का पुरातत्व विभाग समय-समय पर सिक्कों एवं मुद्राओं पर उत्कीर्ण लेखों के अध्ययन हेतु उनसे मार्गदर्शन प्राप्त करता है। उनकी कुछ प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं – ...
आचार्यजी ने परोपकारिणी सभा अजमेर के सहयोग से महर्षि दयानंद की अमूल्य कृति ‘सत्यार्थप्रकाश’ की मूल पांडुलिपि का गहन अध्ययन कर उसके शुद्धतम संस्करण का प्रकाशन करवाया। स्वामी ओमानंद के मार्गदर्शन में उन्होंने ‘सत्यार्थप्रकाश’ को ताम्रपत्रों पर अंकित भी करवाया, जो आज गुरुकुल झज्जर संग्रहालय में सुरक्षित है। इसके अतिरिक्त गुरुकुल गौतमनगर के माध्यम से उन्होंने यजुर्वेद, सामवेद, अष्टाध्यायी, लिङ्गानुशासन एवं फित्सूत्र से संबंधित ताम्रपत्रों के उत्खनन कार्य में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।